पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा 1988 में ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी साहित्य पुरास्कार, राजस्थान रत्न से भी सम्मानित राजस्थानी भाषा के महान रचनाकार स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता राजस्थानी के भीष्म पितामह कहे जाने वाले कन्हैयालाल जी सेठिया को कौन नही जानता ...
यदि कोई नहीं जानता हो तो इनकी इन पंक्तियों को तो देश का कोना-कोना जानता है।
धरती धोराँ री............,
आ तो सुरगां नै सरमावै,
ईं पर देव रमण नै आवै,
ईं रो जस नर नारी गावै,
धरती धोराँ री............,
ओ धरती धोराँ री|
स्कूल-कॉलेजों के पाढ्यक्रमों में इस गीत पढ़ाया जाता है ....
बंगाल रवीन्द्र टैगोर, शरत्, बंकिम को देवता की तरह पूजता है। बिहार दिनकर पर गर्व करता है। उ.प्र. बच्चन, निराला और महादेवी वर्मा को अपनी थाती बताता है। मगर राजस्थान .... ?
इस महान महाकवि को कितना और कब और कैसे सम्मान मिला यह बात आपसे और हमसे छुपी नहीं है। जब इनके बारे में लिखने का सोचा तब कुछ लोगों से इनके बारे में चर्चा की जिनसे चर्चा की उनमें से कुछ को तो यह भी मालूम नही था कि ये है कौन .... .. ..
कन्हैयालाल जी सेठिया की हवेली,सुजानगढ़ |
वैसे इनकी हवेली काफी खूबसूरत है, दीवारों व छतों पर सुन्दर चित्रकारी की गयी है,
हवेली की हालत कुछ जगहों से काफी खस्ता है ..
इसे थोड़ी मरम्मत की भी जरूरत है ....
ये अब लोगो को सोचना है कि जिनके नाम से कविताओं से राजस्थान की पहचान बनी वो उनके लिए क्या करते हैं....
महाकवि श्री कन्हैयालाल सेठिया (11 सितम्बर 1919 - 11 नवंबर 2008) राजस्थानी भाषा के प्रसिद्ध कवि थे। उनका जन्म राजस्थान के चूरु जिले के सुजानगढ़ शहर में हुआ। उनकी कुछ उल्लेखनीय कृतियाँ है:- रमणियां रा सोरठा , गळगचिया , मींझर , कूंकंऊ , लीलटांस , धर कूंचा धर मंजळां , मायड़ रो हेलो , सबद , सतवाणी , अघरीकाळ , दीठ , क क्को कोड रो , लीकलकोळिया एवं हेमाणी । आपको 2004 में पद्मश्री, साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा 1988 में ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी साहित्य पुरास्कार से भी सम्मानित किया गया है।
सेठिया जी द्वारा रचित राजस्थानी गीत 'धरती धोरां री !' राजस्थान का वंदना गीत बन चुका है। राजस्थान का सरस, गौरवशाली वर्णन करने वाले इस गीत के बोल हर राजस्थानी के मन में प्रदेश के गौरव एवं स्वाभिमान को जगाते हैं। गीत में प्रयुक्त अलंकारिक भाषा, भाव, कल्पना, रस -- इन सब में गौरव छलकता है। राजस्थान की समृद्ध सांस्कृतिक पहचान को देश-विदेश में पहुंचाने में इस गीत की ख़ास भूमिका रही है।
बचपन में जब से आँखें खोलीं एक गीत कानों में अक्सर सुनाई देता था। ई तो सुरगा नै सरमावै, ई पै देव रमन नै आवे .......... धरती धोराँ री। 7वीं कक्षा में तो एक कविता कोर्स में थी। ’हरे घास री रोटी ही जद बन बिलावडो ले भाग्यो .........।
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