सेंचुरी का नाम छापर गांव के नाम पर ही रखा गया है, कहा जाता है कि महाभारत काल मे इस इलाके में गुरु द्रोणाचार्य का आश्रम हुआ करता था, इसलिए इस इलाके को पहले छापर द्रोणपुर के नाम से जाना जाता था,इसके अलावा राव जोधा के समय भी इस क्षेत्र का उल्लेख मिलता हैं, एक बार जब राव जोधा और उनके पुत्र राव बीका हिसार के सूबेदार सुरंगखा को युद्ध में हराकर वापस आ रहे थे तो वे विश्राम करने के लिए छापर द्रोणपुर में ही रुके थे , तब वहां राव जोधा और राव बीका के बीच यह समझौता हुआ की लाडनूं से कुछ दूर तक का इलाका जोधपुर रियासत का होगा और उसके थोड़ी दूर आगे से बीकानेर रियासत का....
अंग्रेजो के समय ताल छापर अभ्यारण बीकानेर के महाराज का शिकार गृह हुआ करता था, वो यहाँ का इस्तेमाल स्वंय के लिए तथा अपने शाही मेहमानों के शिकार के लिए किया करते थे , आजादी के बाद 1962 में राज्य सरकार ने इसे वन्य जीव आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया और शिकार पर पूर्णत प्रतिबंद लगा दिया..
अभ्यारण्य में प्रवासी और निवासी दोनों को मिलाकर पक्षियों की कुल 122 प्रजातियाँ निवास करती हैं। यहां देखे जाने वाले प्रवासी पक्षी मध्य मध्य एशिया और यूरोप से आते हैं। तालछापर में अन्य आमतौर पर देखा जाने पक्षियों में हैरियर, पेल हैरियर, ईस्टर्न इंपीरियल ईगल, मार्श हैरियर, स्पैरो हॉक, शॉर्ट-टो ईगल, टॉनी ईगल्स, क्रैक्ड लैकर्स, डेमोरेल क्रेन्स, लिटिल ग्रीन बी-ईटर, स्काईलार्क्स, ग्रीन बी-ईट, ब्राउन कबूतर और ब्लैक आइबिस के नाम शामिल हैं। ताल छापर अभयारण्य पक्षी प्रेमियों के स्वर्ग के समान हैं ।।
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